मंगलवार, 5 मई 2009

हिंदी और संस्कार


संघ लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा परीक्षा के परिणाम ने कम-से-कम उन लोगों को जरूर चौंका दिया है, जो महँगी फीस वसूलने वाले कॉन्वेंट स्कूलों में अपने बच्चों का एडमिशन कराने के लिए रतजगा करते हैं। छत्तीसगढ़ जैसे विकसित हो रहे नए राज्य के चार युवाओं ने राष्ट्रीय स्तर की इस परीक्षा में अपनी योग्यता का परचम लहराया। एक युवती किरण कौशल ने तो वरिष्ठता सूची में तीसरा रैंक हासिल कर यह साबित कर दिया कि छत्तीसगढ़ में प्रतिभाओं का अकाल नहीं है। शारीरिक विकलांगता को मुँह चिढ़ाते हुए एक नौजवान वैभव श्रीवास्तव ने यह प्रमाणित किया कि बड़ी परीक्षाओं में सफल होने के लिए महँगी कोशिश की नहीं, बल्कि दृढ़ इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है। दृष्टिहीन यह नौजवान आज की युवा पीढ़ी को प्रेरित करने के लिए पर्याप्त है। देश में बस्तर की पहचान भले नक्सल हिंसा के लिए हो, लेकिन वहाँ की अंकिता पांडे ने साबित कर दिया कि कोचिंग और महँगे शहरों में जाकर बड़ी परीक्षाओं की तैयारी करने से कुछ नहीं होगा। कामयाबी के लिए जज्बे की आवश्यकता है, जो उसने बस्तर जैसे सुविधा-साधनविहीन जगह रहकर पैदा किया और आज सिविल सेवा की परीक्षा में कामयाब हुई। छत्तीसगढ़ के संदर्भ में यह बात गौरव के साथ कही जा सकती है कि अधिकतर सफल प्रतियोगियों की स्कूली शिक्षा हिंदी माध्यम की रही है। दिलचस्प बात यह है कि चार में से तीन ने सरस्वती शिशु मंदिर में शिक्षा हासिल की, जिसे एक संगठन विशेष का बताया जाता है। हाल के कुछ वर्षों में इस स्कूल के बच्चों ने जब बोर्ड परीक्षाओं में प्रावीण्यता हासिल की, तो यहाँ बहुत शोर मचाया गया। प्रदेश में भाजपा की सरकार है, लिहाजा यह आरोप लगाए गए कि सरस्वती शिशु मंदिर को प्रमोशन देने के लिए सरकार के इशारे पर इन स्कूलों के बच्चों को प्रावीण्य सूची में स्थान दिया गया, पर सिविल सेवा की परीक्षा में कामयाब होने वाले युवाओं ने इन आरोपों को झूठा साबित कर दिया है। लोग भले अपने बच्चों को कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ाएँ, पर वे अच्छी तरह जानते हैं कि संस्कार और जीवन के प्रति दृष्टि तो हिंदी माध्यम के स्कूलों से ही मिलती है। यहाँ कॉन्वेंट स्कूलों की आलोचना का मकसद नहीं है, पर पिछले कुछ सालों के नतीजों को देखने के बाद हिंदी स्कूलों के प्रति झुकाव बढ़ने लगा है। कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ाई भी बेहद पेशेवर अंदाज से कराई जाती है, पर समाज और संस्कार के बारे में शायद ही कहीं बताया जाता हो। अनेक अवसरों पर मीडिया में यह बताया जाता है कि इन स्कूलों के बच्चों को 15 अगस्त और 26 जनवरी का मतलब नहीं मालूम। वे नहीं जानते कि पं. जवाहरलाल नेहरू या महात्मा गाँधी कौन थे? उन्हें नहीं पता है कि आजादी की लड़ाई कब और क्यों लड़ी गई? यही तो हमारी मूल्यवान सांस्कृतिक धरोहर है, जिनको जाने बिना हम युवा पीढ़ी से सुनहरे भारत की कल्पना कैसे कर सकते हैं?