शनिवार, 11 अप्रैल 2009

कहाँ गई संवेदना?

देशभर में चुनावी सरगर्मी बढ़ी हुई है। छत्तीसगढ़ में कुछ ज्यादा ही है, क्योंकि यहां अगले सप्ताह मतदान होना है। वैसे तो यहाँ के लोग बेहद शांतिप्रिय हैं। बाहर से आने वाला किसी भी व्यक्ति को यहाँ अपनत्व पाने में बहुत दिन नहीं लगते। शायद यह अपनत्व बाँटने का नुकसान अब दिखने लगा है। मेरी बात का मर्म यह है कि चुनाव प्रचार के दौरान यहाँ सभी राष्ट्रीय स्तर के नेताओं का आना लगा हुआ है। सब अपनी उपलब्धियां गिना रहे हैं और भविष्य के सपने दिखा रहे हैं, पर राष्ट्रीय स्तर के किसी भी नेता ने छत्तीसगढ़ के विकास में सबसे बड़े बाधा बने नक्सलियों के खिलाफ मुँह नहीं खोला। शनिवार को छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के युवराज राहुल गाँधी और भाजपा के पीएम इन वेटिंग लालकृष्ण आडवाणी ने सभाएँ लीं। बड़े-बड़े वादे किए, पर किसी ने उन निर्दोष शहीदों को श्रद्धा के दो शद्ब कहने की जरूरत नहीं समझी, तो लोकतंत्र के इस महापर्व को शांतिपूर्वक संपन्न् कराने के लिए अपनी जान गँवा बैठे। मैं हैरान हूँ कि बड़े नेताओं की संवेदनशीलता को आखिर क्या हो गया है। श्री गाँधी और श्री आडवाणी राजधानी रायपुर में थे। जिस स्थान पर उनके कार्यक्रम थे, उससे कुछ ही दूरी पर उन दस सुरक्षा जवानों के शव रखे हुए थे, जिनके शरीर को नक्सलियों ने शुक्रवार को ही छलनी कर दिया था। कांग्रेस और भाजपा के प्रांतीय नेताओं की क्या इतनी भी जिम्मेदारी नहीं बनती थी, कि वे अपने राष्ट्रीय नेताओं को इसकी जानकारी देते और शहीदों के पार्थिव शरीर पर फूल चढ़ाने का आग्रह करते। भाषणों में नेताओं ने अमेरिका से लेकर मुंबई तक के आतंकवाद का विस्तार से जिक्र किया, लेकिन जिस धरती पर खड़े होकर वे भाषण दे रहे थे, उस पर बिखरा लहू उन्हें नहीं दिखाई दिया। जिस माँ ने बेटा, जिस बहन ने भाई और जिस पत्नी ने सुहाग खोया है, वह तो वापस नहीं मिल सकता है, लेकिन राष्ट्रीय स्तर के नेताओं की सांत्वना नक्सल क्षेत्र में मुकाबला कर रहे सुरक्षा जवानों को मनोबल अवश्य बढ़ाता और वे अधिक मुस्तैदी से अपने कर्तव्य का पालन करने में जुट जाते। शायद उन्हें लगता कि कल जिनके हाथों देश की कमान जाने वाली है, उन्हें उनकी फिक्र है, पर अफसोस है कि गरीबों और किसानों के हितों की बात करने वालों के पास इतने भी आँसू नहीं बच पाए हैं कि वे शहीदों के परिजनों का ढंाढस बंधा सकें।