मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

पैकेज का है बोलबाला दाल में है कुछ काला

करीब दो महीने पहले गोवा की खूबसूरत वादियों में एक भव्य कार्यक्रम हुआ। उत्सुकतावश जानने की कोशिश की, तो पता चला कि क्रिकेट के बड़े-बड़े महारथियों की खरीद-फरोख्त चल रही है। अगले दिन के समाचारपत्रों में दुनिया के तमाम नामी क्रिकेट खिलाड़ियों की कीमत छपी और उनके खरीदारों के नाम भी। थोड़ी हैरानी हुई कि क्या क्रिकेटर भी बिकाऊ हो गए हैं? पर अब मेरा यह भ्रम टूट गया है। बात दरअसल यह है कि दो-तीन दिन पहले मेरे पास एक फोन आया कि भाई साहब आपसे मिलना है, कुछ जरूरी काम है। खबरनवीस होने के कारण मैंने सोचा जरूर कोई बड़ा स्कूप मिलने वाला है, लिहाजा मैंने हामी भर दी और नियत समय व जगह पर वह सज्जन मुझसे मिलने आए। सामान्य बातचीत के बाद उन्होंने एक लिफाफा मेरी तरफ बढ़ाया और कहा कि अमुक नेताजी ने इसे भेजा है। चुनाव का पैकेज है। मेरे लिए यह नया तजुर्बा था। मेरे पूछने पर उसने लिफाफे में रखा अमाउंट भी बताया। पत्रकार होने के नाते सवाल पूछने की आदत है। मैंने पूछा कि किसी भी पत्रकार के लिए राशि तय करने का पैमाना क्या होता है? जवाब मिला, यह उसकी मार्केट वैल्यू के आधार पर तय की जाती है। मतलब अगर किसी पत्रकार की न्यूसेंस वैल्यू अधिक है, उसे अधिक राशि और अगर कोई प्रतिष्ठित समाचारपत्र में काम करता है और अधिक गुणा-भाग नहीं करता, उसे शिष्टाचारवश यह राशि दी जाती है। खैर, धन्यवाद के साथ राशि लौटाने के बाद मैं सोचने के लिए मजबूर हो गया कि चुनाव लड़ने वाले नेता किस तरह पत्रकारों की कीमत तय कर लेते हैं। बड़ी राशि देकर नेता उन पत्रकारों का मुँह भी कम से कम चुनाव के समय बंद कर देते हैं, जिनसे कुछ अपेक्षा रहती है। दरअसल चुनाव आयोग की सख्ती के कारण अखबारों में विज्ञापनों की संख्या कम हो गई है, क्योंकि प्रत्याशी को इसका हिसाब-किताब देना पड़ता है। अखबारों में विज्ञापन के रेट इतने अधिक हैं और अखबारों की संख्या इतनी अधिक है कि किसी भी प्रत्याशी के लिए यह कर पाना संभव नहीं है, लिहाजा अब 'पैकेज" का चलन हो गया है। राजनीतिक दल पत्रकारों की जेब गरम कर अपनी मर्जी की खबर बनवा लेते हैं। चुनावी खबरें 'पैकेज" में छप जाती हैं, जिसका हिसाब-किताब किसी के पास नहीं होता। आम लोगों में आज भी अखबारों के प्रति खासा विश्वास है। मारपीट होने पर इलाज के लिए अस्पताल जाने से पहले लोग आज भी अखबार के दफ्तर पहले जाना पसंद करते हैं। ऐसे में प्रजातंत्र के इन दो महत्वपूर्ण स्तंभों की मिली-जुली कुश्ती क्या उन लाखों पाठकों के विश्वास को नहीं तोड़ रही है, जो अखबार में किसी राजनीतिक दल या नेता के गुणगान को पढ़कर वोट देने का मन बनाता है? छत्तीसगढ़ अब तक इससे अछूता रहा है। छत्तीसगढ़ के पत्रकारों की साख राष्ट्रीय स्तर तक रही है। राष्ट्रीय मीडिया में काम करने वाले कई लोग आज भी भरोसा करते हैं कि छत्तीसगढ़ के पत्रकारों से निष्पक्ष व सही जानकारी मिलेगी, पर अब उन्हें इस पर पुनर्विचार करने की जरूरत होगी।